कहा दिल ने चलो घूम आओ
जिस्म का जलसा चल रहा
नीरज कुमार
रहते- रहते ऊब गया था
अपनी छोटी सी बस्ती में,
दिल ने कहा चलो घूम आओ
किसी तटिनी में, किसी कस्ती में,
इससे पहले सिर्फ देखा था
उस तरंगिणी का किनारा,
जहाँ अर्ध्य देकर दिनकर को
पवित्र होता यह संसार सारा,
एक तट से दूसरे तट पर
सूर्य चमकता दिखता था,
जिससे सारा जन और जीवन
उजला-उजला दिखता था,
बीच नदी में दिख रहे थे
बादल से श्वेत पर सधे हुए,
दुनिया हाथ जोड़े खड़ी थी
कुछ आस्था और उम्मीद से बँधे हुए,
मैने वहां एक सज्जन से पूछा
ये कैसे नजारे हैं,
उन्होंने कहा जन कल्याण करने
देव स्वयं पधारे हैं,
मैंने सोचा इस जन्म को
आज धन्य बना डालूँ,
सशरीर देव से मिलने को
अब कश्ती आगे बढ़ा डालूँ,
जब कश्ती पहुंची लक्ष्य पर तो देखा
जुल्म ही जुल्म ढ़ह रहा था,
नदी के बीचों बीच में
एक काला नाला बह रहा था,
दूर से श्वेत दिखने वाले
उसमें डुबकी लगा रहे थे,
नाले के अंदर सब ओर
बस काला काम चल रहा था,
कत्ल-कपट इस पानी में
समांग बनकर बह रहे थे,
ध्यान से देखा तो उसमें
जिस्म का जलसा चल रहा था,
तभी नदी के एक झोंके ने
उनके काले मुख को साफ किया,
मैं देखकर ये हैरान था
इन्होंने भी ऐसा पाप किया,
उसमें वे बाबा भी थे
जिन्हें दान में हमने नोट दिया,
और वे तो नंगे नाच रहे थे
जिन्हें हमने अपना वोट दिया,
ये सब देखकर खुद को वहाँ
एक मिनट भी रोक न पाया,
फिर से कश्ती लेकर के
अपनी बस्ती मे चला आया,
लोग अब भी वहीं खड़े थे
किसी चमत्कार के इंतजार में,
और श्वेत वाले अब भी चमक रहे थे
इंन्द्रधनुष के आकार में।
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