..तो दिल्ली पहुँचे भाई

कविता की कुड़माई 

टिंहुनिन-कोहनी तक...



विनय विक्रम सिंह


तुमहिन तो हमरे वो हौ, द्याबै चरन चपाई।
मंच देवइबे तुमका सगरे, हमका धरेओ सवाई।१।


निहुरे रह्यौ हमेसा जइसे, पीठी लचक समाई।
हाँ हाँ हाँ हीले गटई जस, जूड़ी देह समाई।२।


तुमका त्येल-फुलेल लगाकर, तुम्हरेओ मंच बनाई। 
घोल जिलेबी लपसी मा, करिबै डबल कमाई।२।


दुइन-तीन ठो रचना चहिहैं, तुमका देब लिखाई।
जहाँ जाव तहँ घेर्रो इनका, यहै सिद्ध चतुराई।३।


थोरी लसी-पसी बतियन ते, साधो हितुआ भाई।
पोटि-पाटि हर मठाधीश का,  बनिल्यौ मंच जमाई।४।


माला गटई भरिभरि मिलिहैं, म्वाछन ताव जमाई।
दूध फारि के दुइनो जन की, 'टिहुनिन गरम मलाई।५।


भाँड़ भड़ैती गा चुटकुल्ले, फारि नसें चिल्लाई।
माँगैं तारी लिहे कटोरा, यहै सिद्ध कविताई।६।


हियैंते आएन यहना बोल्यौ, सुनु बच्चा चितलाई।
हापुड़ ते पकरी फ्लाइट, तो दिल्ली पहुँचे भाई।७।


भाव बढ़ावै के करतब की, पट्टी यहै पढ़ाई।
याक मेहन्नी हो संगे तो, पूर्ण रूप प्रभुताई।८।


कविताई अब भयी अखाड़ा, मंचन कै कुड़माई।
इक-दूजे के साथी जइसे, गटई फँसी दवाई।९।


तुम्हरा नाड़ा हम बाँधी, तुम बाँधो पाग हमाई।
उलट-पलट यह तारी बाजै, फोटू ख़ूब छपाई।१०।


लिखि-लिखि दिनकर कबौ न बनिहौ, छ् वाड़ौ यहु लरिकाई।
कुर्त्ता पहिरो गोटेवाला, जम के करो चेपाई।११।


यहै सिद्ध कवियन कै लीला, तुम्हका देइ सुनाई।
दंद-फंद मा माहिर है जो, महाकवि सो भाई।१२।



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