नदी के दो पाट से जो कहीं नहीं मिलते.
कभी मिलेंगे
अब तक ख़्वाहिश का दामन ना छूटा
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
हम तुम
नदी के दो पाट से
जो कहीं नहीं मिलते.
मुझमें कहीं पुरुषत्व का आकाश
तुम में बसी नारीत्व की धरा
अपने गुणों का सौरमंडल
मुझे भली-भांति पता है.
तुम में है नारीत्व शक्ति
अपने आप में परिपूर्ण
कब तक मूँद लें
हम अपनी आँखें
अब तक ख़्वाहिश का दामन ना छूटा
खुद को हरा रखने हेतू
आज तलक आकाश ना टपका
आस की हर बूँद बाकी है
कभी तो गर्जन होगी
और बादल बरसेगे
और टकराएगा
मेरे अहम से तुम्हारा स्वयं
माना धरती आकाश नहीं मिलते
मगर कहीं क्षितिज भी होता है
आज हम -तुम ना मिल सके "उड़ता ",
लेकिन कहीं कोई मोड़ जरूर होगा.
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