दुनिया से अन्जान
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
सुबह जब उठा
तो मीठी सी ध्वनि
कानों में गूँजी
देखा जो दूर नज़र उठा
एक यौवना बांसुरी बजाती हुई
अपने आप में मस्त
धुनों में रमती हुई
सुर-ताल से सजी
होठों से बजती हुई.
एैसा लगे मानो
ढूंढ़ती हो अपने स्वप्नों को
अनरचे गीतों को
आकांक्षाओं को
दूसरी दुनिया से अन्जान
जैसे कुसुमित निर्झर फुहार
खेतों में, खलियानों में,
कुंजों में, निकुंजों में,
यमुना के कछारों में,
आरती में, भजन की तरंगो में
जो भी पुकार सुने चलता राही
ठहर जाता है.
खींचा चला आता है.
गोपियों सा मन -मीत बन जाता है
कुछ तो बात थी
उसकी उँगलियों में "उड़ता "
जो हल्का सा शौर भी
गीत -ए -मंजर बन जाता है.
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