आस्था पर चोट नहीं  

सरिता सिंह 



लखनऊ | जमुना दत पाण्डे बाबा के निष्ठावान भक्तों में से थे  एक दिन सन्ध्या समय अपने हमउम्र वृद्ध जनों के साँथ टहलते हूये एक अफ़वाह सुनने को मिली कि बाबा जी किसी अपराधँ करने वंश बरेली जेल में बन्द है । आप बहूत विकल, विक्षुब्ध मानसिक अवस्था में घर पहूँचे । आप को बहूत बैचेनी हो गयी । न ही आप संध्या पुजन कर पाये और न ही भोजन प्रसाद ले पाये । कारण पूँछें जाने पर अपनी अवस्थता बता दी । पर घर पर किसी से असली बात नहीं बतायी ।


रात को बिस्तर पर करवटे बदलते रहे, ह्रदय पर इस गहन- गंभीर चोट के कारण बार बार स्वंय से तर्क वितर्क करते रहे पर चैन नहीं मिल रहाँ था । उठकर जाप करने लगे पर कोई विश्राम नहीं मिल पा रहा था अन्त में यही विकल्प लिया कि "अगर ये सत्य नहीं है, झूठा है तो भोर होने के पूर्व बाबा जी स्वंय यहाँ आकर दर्शन देंगे, अन्यथा नही ।"



नींद तो कोसों दूर थी अब वे गजेन्द्र मोक्ष स्तुति लेकर बैठ गये। सुबह ब्रह्म बेला तक न दाने कितने पाठ कर डाले। बाबा जी के न आने पर हताशा घेरे जा रही पर तभी भोर से पहले दरवाज़े पर दस्तक हूई बाबा जी की आवाज़ के साथ --"जम्ना, जम्ना !!" उछलकर दरवाज़ा खोला पाण्डे जी ने , यही आवाज़ तो सुनने को तरस रहे थे वे। वे बाबा के चरणों में ऐसे लोट गये जैसे पहले कभी नही। अपने भावपूर्ण अश्रुओं से बाबा के चरणों को भिगो दिया । महाराजजी ने उन्हें उठाया ।


गजेन्द्र को मृत्यु- सम महान आपदा से मुक्ति जो मिल गयी थी । और तभी बाबा के साँथ आये उमा दत शुक्ला जी बोले  कि  महाराजजी तो कानपुर जा रहे थे । नवाबगंज पहुँचते ही कहने लगे कि ,गाड़ी लौटाओ । चलो तुम्हे जम्ना के घर शान्ता (पाण्डे जी की बहू) के भजन सुनवायेगे । अपने भक्त की आस्था निष्ठा विश्वास पर चोट न सह सके महाप्रभु । अपने इस गजेन्द्र की पुकार सुनकर उसे व्यथा से मुक्ति दिलाने दौड पड़े । -अनंत कथामृत




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