ये सिलसिला चलता रहा...
मंजुल भारद्वाज
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
हालातों के मुखड़े बने
ज़ज्बातों को अंतरे में पिरोता गया
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
ताल के ठेके पर
चुनौतियाँ ढेर हो गयी
सा के सरगम पर
सुर से सुर मिलता गया
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
समय के दौर को
शब्दबद्ध करता रहा
काल के कपाल पर
नयी इबारत लिखता गया
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
सुनो ऐ साथ साथ चलने वाली
कभी सम, कभी तेज़ और
कभी मंद बहने वाली हवा
तेरे आंचल में मैं
चाँद तारे सजाता रहा
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
धूल से सज्जी मुखसज्जा
चम चम चमकती
पसीने की बूंदों से
शरीर और चेतना के संगम से
सृजन त्रिवेणी बहाता रहा
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
व्यवस्था के चुंगल
सत्ता की ठोकरों से
जड़ होती मनुष्य चेतना को
अपनी रंग चेतना से मुक्त कर
इंसानियत के रंग भरता रहा
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
जीवन प्राणों का सरगम है
संसार के मुखौटों को हटाकर
प्राण उर्जा से जीवन के
नए मायने , नए मुकाम
सृजित करता रहा
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा
आवक जावक कालबद्ध है
जन्म और मृत्यु के बीच
जीवन के रंगमंच में
प्रेम रंग भरता रहा
जीवन के राग पर
मैं नया गीत गाता रहा
मुसलसल ये सिलसिला चलता रहा...
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