उलझा रहता हूं जीवन की उलझनों में
सुरेंद्र सैनी..
अपनी रूह पर एक घाव लेकर चलता हूं
हर वक्त मुश्किलों का बहाव लेकर चलता हूं
उलझा रहता हूं जीवन की उलझनों में
हर पल मस्तिष्क में तनाव लेकर चलता हूं
दर्द का दरिया जाने कब से बह रहा
अकसर आंसुओं की चनाव लेकर चलता हूं
मूलभूत जरूरतें क्यों मर रही हैं
होकर मजबूर यूं ही आभाव लेकर चलता हूं
परिवार मेरी तरफ उम्मीद से देख रहा
मैं तो बिखरे-बिखरे मनोभाव लेकर चलता हूं
बेबसी में कैसे आतिथ्य सत्कार हो
बस आदतन मुस्कुराने का स्वभाव लेकर चलता हूं
टूटता ये तन हालात काबू कैसे करूं
उफनते जोश में कुछ करने का चाव लेकर चलता हूं
जीने की आरजू में सांसे पूरी हो रही
गम के रास्तों में पीठ पर सहलाव लेकर चलता हूं
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